दिल्लीः परंपरा और आधुनिकता का संगम

मुख्य समाचार ३१ मार्च २००९

आडवाणी के समर्थन में युवा संपर्क मार्च निकाला
नई दिल्ली। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी के समर्थन में सोमवार को युवा संपर्क मार्च निकाला गया। पंजाब के पूर्व डीजीपी केपीएस गिल ने इंडिया गेट के चिल्ड्रन पार्क से झंडी दिखाकर मार्च को रवाना किया। यह मार्च इंद्रप्रस्थ संजीवनी नामक संस्था की ओर से किया गया था। संस्था के अध्यक्ष संजीव अरोड़ा के मुताबिक युवा संपर्क मार्च के माध्यम से संस्था दिल्ली के युवाओं से भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के लिए समर्थन जुटा रही है जिससे युवा शक्ति की बदौलत श्री आडवाणी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया जा सके और आतंकवाद मुक्त भारत का निर्माण किया जा सके। इस दौरान श्री गिल ने भी युवाओं से श्री आडवाणी के समर्थन में आगे आने की अपील की।
निराले होते हैं मतदाताओं के खेल
नई दिल्ली। मतदाताओं के खेल निराले होते हैं। इस खेल में ज्यादातर मतदाता किसी भी स्थिति में अपनी पार्टी नहीं बदलते तो कुछ मतदाता देश की परिस्थितियों, स्थानीय समस्याओं व मुद्दों के आधार पर पार्टी का चयन करते हैं। दिल्ली में पिछले छह लोकसभा का चुनाव परिणाम यही संकेत देता है जो कांग्रेस के मतदाता हैं। उनकी कांग्रेसी सोच है तो भाजपा मतदाताओं की भाजपाई सोच। लेकिन जो बीच के करीब 20 प्रतिशत मतदाता हैं, वही चुनाव का असली फैसला करते है। आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली के मात्र दस प्रतिशत मतदाताओं का रुझान अन्य दलों की तरफ रहता है। पिछले छह लोकसभा चुनाव में भाजपा को औसतन 43।83 प्रतिशत तो कांग्रेस को 43.27 प्रतिशत मत मिले। लगभग 0.56 प्रतिशत मत के अंतर ने जहां भाजपा को 28 सीटें दिलाई, वहीं कांग्रेस को 13 सीटें। वर्ष 1989 में एक सीट जनता दल के खाते में गई। 1989 में भाजपा ने पांच सीटों पर ही अपने प्रत्याशी खड़े किए थे। आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस का मत प्रतिशत यदि वर्ष 2004 को छोड़ दिया जाए तो 37 फीसदी से 43 फीसदी के बीच रहा, जबकि भाजपा को जो मत मिले वह कभी 26 प्रतिशत तो कभी 51 प्रतिशत रहे। साफ है कि भाजपा से जुड़े निष्ठावान मतदाताओं की अभी कमी है। मतदाताओं ने दिल्ली में तीसरे दल के अस्तित्व को अब तक नकार रखा है। लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने न निर्दलीय की कभी पीठ थपथपाई, न बसपा की। जनता दल के गठन के बाद वर्ष 1989 व 1991 में लोगों ने जरूर 15 प्रतिशत मतदान इस दल को किया था। बाद में जिस तरह से दल का अस्तित्व समाप्त होता गया मतदाता भी कन्नी काटते गए। इस दल या अन्य दलों (कांग्रेस को छोड़कर) से निकले मतदाताओं का रुझान भाजपा की तरफ रहा। शायद यही कारण रहा कि भाजपा ने पिछले छह लोकसभा चुनाव के 42 सीटों (प्रति लोकसभा सात सीटें) में से 28 सीटों पर कब्जा जमाया। इस सबके विपरीत वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव के आंकड़े कुछ ज्यादा ही चौंकाने वाले थे। भाजपा के मत प्रतिशत में बहुत ज्यादा कमी नहीं हुई, लेकिन कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़कर करीब 55 हो गया था। अन्य दलों को मिलने वाले लगभग शत-प्रतिशत मत पर कांग्रेस का कब्जा था। जानकार बताते हैं कि दिल्ली में कांग्रेस का अपना वोट बैंक है। भाजपा को लाभ तभी मिलता है जब अन्य दलों को मिलने वाले मतों में से ज्यादातर हिस्सा भाजपा के खाते में जाता है। भाजपा को पिछले छह लोकसभा चुनाव में ज्यादातर सीटें मिलने का प्रमुख कारण कांग्रेस की नीति में कमी व मंदिर आंदोलन मुद्दा रहा। इसके अतिरिक्त भाजपा के पास अटल बिहारी वाजपेयी जैसा चेहरा भी था। वर्तमान में क्या स्थिति बनेगी, यह कहना अभी जल्दबाजी होगा। लेकिन यह तय है कि फैसला अन्य दलों को मिलने वाले मत में से भाजपा की तरफ कितना मत जाता है, उस पर निर्भर करता है। हालांकि इस चुनाव में बसपा भी सक्रिय भूमिका में है।
(सौजन्य : दैनिक जागरण)